Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद




मिसेज़ सेवक-खुदा इन लोगों का उद्योग सफल करें। इनके त्याग की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। मैं देखती हूँ, यहाँ इनकी खास तादाद है।
कुँवर साहब-मुझे इतनी आशा न थी, विनय की बातों पर विश्वास न होता था, सोचता था, इतने वालंटियर कहाँ मिलेंगे। सभी को नवयुवकों के निरुत्साह का रोना रोते हुए देखता था, 'इनमें जोश नहीं है, त्याग नहीं है, जान नहीं है, सब अपने स्वार्थ-चिंतन में मतवाले हो रहे हैं। कितनी ही सेवा-समितियाँ स्थापित हुईं पर एक भी पनप न सकी। लेकिन अब मुझे अनुभव हो रहा है कि लोगों को हमारे नवयुवकों के विषय में कितना भ्रम हुआ था। अब तक तीन सौ नाम दर्ज हो चुके हैं। कुछ लोगों ने आजीवन सेवा-धर्म पालन करने का व्रत लिया है। इनमें कई आदमी तो हजारों रुपये माहवार की आय पर लात मारकर आए हैं। इनका सत्साहस देखकर मैं बहुत आशावादी हो गया हूँ।
मिसेज़ सेवक-मिस्टर क्लार्क कल आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे। ईश्वर ने चाहा, तो आप शीघ्र सी.आई.ई. होंगे और मुझे आपको बधाई देने का अवसर मिलेगा।
कुँवर साहब-(लजाते हुए) मैं इस सम्मान के योग्य नहीं हूँ। मिस्टर क्लार्क मुझे इस योग्य समझते हैं, तो वह उनकी कृपा-दृष्टि है। मिस सेवक, तैयार रहना, कल तीन बजे के मेल से ये लोग सिधारेंगे। प्रभु ने भी आने का वादा किया है।
मिसेज़ सेवक-सोफी तो आज घर जा रही है। (मुस्कराकर) शायद आपको जल्द ही इसका कन्यादान देना पड़े। (धीरे से) मिस्टर क्लार्क जाल फैला रहे हैं।
सोफ़िया शर्म से गड़ गई। उसे अपनी माता के ओछेपन पर क्रोध आ रहा था-इन सब बातों का ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत है? क्या यह समझती हैं कि मि. क्लार्क का नाम लेने से कुँवर साहब रोब में आ जाएँगे?
कुँवर साहब-बड़ी खुशी की बात है। सोफी, देखो, हम लोगों को और विशेषत: अपने गरीब भाइयों को न भूल जाना। तुम्हें परमात्मा ने जितनी सहृदयता प्रदान की है, वैसा ही अच्छा अवसर भी मिल रहा है। हमारी शुभेच्छाएँ सदैव तुम्हारे साथ रहेंगी। तुम्हारे एहसान से हमारी गरदन सदा दबी रहेगी। कभी-कभी हम लोगों को याद करती रहना। मुझे पहले न मालूम था, नहीं तो आज इंदु को अवश्य बुला भेजता। खैर,देश की दशा तुम्हें मालूम है। मिस्टर क्लार्क बहुत ही होनहार आदमी हैं। एक दिन जरूर यह इस देश के किसी प्रांत के विधाता होंगे। मैं विश्वास के साथ यह भविष्यवाणी कर सकता हूँ। उस वक्त तुम अपने प्रभाव, योग्यता और अधिकार से देश को बहुत कुछ लाभ पहुँचा सकोगी। तुमने अपने स्वदेशवासियों की दशा देखी है, उनकी दरिद्रता का तुम्हें पूर्ण अनुभव है। इस अनुभव का उनकी सेवा और सुधार में सद्व्यय करना।
सोफ़िया मारे शर्म के कुछ बोल न सकी। माँ ने कहा-आप रानीजी को जरूर साथ लाइएगा। मैं कार्ड भेजूँगी।
कुँवर साहब-नहीं मिसेज़ सेवक, मुझे क्षमा कीजिएगा। मुझे खेद है कि मैं उस उत्सव में सम्मिलित न हो सकूँगा। मैंने व्रत कर लिया है कि राज्याधिकारियों से कोई सम्पर्क न रखूँगा। हाकिमों की कृपा-दृष्टि, ज्ञात या अज्ञात रूप से हम लोगों को आत्मसेवी और निरंकुश बना देती है। मैं अपने को इस परीक्षा में नहीं डालना चाहता; क्योंकि मुझे अपने ऊपर विश्वास नहीं है। मैं अपनी जाति में राजा और प्रजा तथा छोटे और बड़े का विभेद नहीं करना चाहता। सब प्रजा हैं, राजा है वह भी प्रजा है, रंक है वह भी प्रजा है। झूठे अधिकार के गर्व से अपने सिर को नहीं फिराना चाहता।
मिसेज़ सेवक-खुदा ने आपको राजा बनाया है। राजों ही के साथ तो राजा का मेल हो सकता है। अंगरेज लोग बाबुओं को मुँह नहीं लगाते,क्योंकि इससे यहाँ के राजों का अपमान होता है।
डॉ. गांगुली-मिसेज़ सेवक, यह बहुत दिनों तक राजा रह चुका है, अब इसका जी भर गया है। मैं इसका बचपन का साथी हूँ। हम दोनों साथ-साथ पढ़ते थे। देखने में यह मुझसे छोटा मालूम होता है, पर कई साल बड़ा है।
मिसेज़ सेवक-(हँसकर) डॉक्टर के लिए यह तो कोई गर्व की बात नहीं है।
डॉ. गांगुली-हम दूसरों का दवा करना जानते हैं, अपना दवा करना नहीं जानता। कुँवर साहब उसी बखत से च्मेपउपेज है। उसी च्मेपउपेउ ने इसकी शिक्षा में बाधा डाली। अब भी इसका वही हाल है। हाँ, अब थोड़ा फेरफार हो गया है। पहले कर्म से भी निराशावादी था और वचन से भी। अब इसके वचन और कर्म में सादृश्य नहीं है। वचन से तो अब भी च्मेपउपेज है; पर काम वह करता है, जिसे कोई पक्का व्चजपउपेज ही कर सकता है।

कुँवर साहब-गांगुली, तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो। मुझमें आशावादिता के गुण ही नहीं हैं। आशावादी परमात्मा का भक्त होता है,पक्का ज्ञानी, पूर्ण ऋषि। उसे चारों ओर परमात्मा की ही ज्योति दिखाई देती है। इसी में उसे भविष्य पर अविश्वास नहीं होता। मैं आदि से भोग-विलास का दास रहा हूँ; वह दिव्य ज्ञान न प्राप्त कर सका, जो आशावादिता की क्ुं+जी है। मेरे लिए च्मेपउपेउ के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। मिसेज़ सेवक, डॉक्टर महोदय के जीवन का सार है-आत्मोत्सर्ग। इन पर जितनी विपत्तियाँ पड़ीं, वे किसी ऋषि को नास्तिक बना देतीं। जिस प्राणी के सात बेटे जवान हो-होकर दगा दे जाएँ, पर वह अपने कर्तव्‍य-मार्ग से जरा भी विचलित न हो, ऐसा उदाहरण विरला ही कहीं मिलेगा। इनकी हिम्मत तो टूटना जानती ही नहीं, आपदाओं की चोटें इन्हें और भी ठोस बना देती हैं। मैं साहसहीन, पौरुषहीन प्राणी हूँ। मुझे यकीन नहीं आता कि कोई शासक जाति शासितों के साथ न्याय और साम्य का व्यवहार कर सकती है। मानव-चरित्र को मैं किसी देश में,किसी काल में, इतना निष्काम नहीं पाता। जिस राष्ट्र ने एक बार अपनी स्वाधीनता खो दी, वह फिर उस पद को नहीं पा सकता। दासता ही उसकी तकदीर हो जाती है। किंतु हमारे डॉक्टर बाबू मानव-चरित्र को इतना स्वार्थी नहीं समझते। इनका मत है कि हिंसक पशुओं के हृदय में भी अनंत ज्योति की किरणें विद्यमान रहती हैं, केवल परदे को हटाने की जरूरत है। मैं अंगरेजों की तरफ से निराश हो गया हूँ, इन्हें विश्वास है कि भारत का उध्दार अंगरेज-जाति ही के द्वारा होगा।

मिसेज़ सेवक-(रुखाई से) तो क्या आप यह नहीं मानते कि अंगरेजों ने भारत के लिए जो कुछ किया है, वह शायद ही किसी जाति ने किसी जाति या देश के साथ किया हो?
कुँवर साहब-नहीं, मैं यह नहीं मानता।
मिसेज़ सेवक-(आश्चर्य से) शिक्षा का इतना प्रचार और भी किसी काल में हुआ था?
कुँवर साहब-मैं उसे शिक्षा ही नहीं कहता, जो मनुष्य को स्वार्थ का पुतला बना दे।
मिसेज़ सेवक-रेल, तार, जहाज, डाक, ये सब विभूतियाँ अंगरेजों ही के साथ आईं!
कुँवर साहब-अंगरेजों के बगैर भी आ सकती थीं, और अगर आई भी हैं तो अधिकतर अंगरेजों ही के लाभ के लिए।
मिसेज़ सेवक-ठीक है, ऐसा न्याय-विधान पहले कभी न था।
कुँवर साहब-ठीक है, ऐसा न्याय-विधान कहाँ था, जो अन्याय को न्याय और असत्य को सत्य सिध्द कर दे! यह न्याय नहीं, न्याय का गोरखधंधा है।
सहसा रानी जाह्नवी कमरे में आईं। सोफ़िया का चेहरा उन्हें देखते ही सूख गया, वह कमरे के बाहर निकल आई, रानी के सामने खड़ी न रह सकी। मिसेज़ सेवक को भी शंका हुई कि कहीं चलते-चलते रानी से फिर न विवाद हो जाए। वह भी बाहर चली आईं। कुँवर साहब ने दोनों को फिटन पर सवार कराया। सोफ़िया ने सजल नेत्रों से कर जोड़कर कुँवरजी को प्रणाम किया। फिटन चली। आकाश पर काली घटा छाई हुई थी, फिटन सड़क पर तेजी से दौड़ी चली जाती थी और सोफ़िया बैठी रो रही थी। उसकी दशा उस बालक की-सी थी, जो रोटी खाता हुआ मिठाईवाले की आवाज सुनकर उसके पीछे दौड़े, ठोकर खाकर गिर पड़े, पैसा हाथ से निकल जाए और वह रोता हुआ घर लौट आवे |



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